भारतीय महिला और उसकी सशक्त अवस्थायें

हम बहु-संस्कृति के संदर्भ में महिला की बात करते है। दूसरा, परस्पर निर्भरता और साझेदारी की बात करते है। तीसरी बात यह है कि हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से की महिला को ले लें तो हम पाते है कि उसके जीवनकाल में सशक्तिकरण की कई अवस्थायें आती है। पश्चिमी समाज को हमने करीब से देखा है और यही पाया है कि उनमें और यहां की महिलाओं के जीवन में एक मूल अंतर है और वह मूल अंतर यही है कि यहां महिलाओं के जीवनकाल में कई अवस्थायें होती है जब वह पूरी तरह असहाय और दूसरे पर आश्रित नहीं होती यहां जब लड़की बहुत छोटी होती है तो वह सबसे ज्यादा असहाय, अनचाही और दूसरों पर आश्रित होती है। फिर जब वह बड़ी आश्रित होती है। फिर जब वह बड़ी बहन बनती है तो उसकी शक्ति का दायरा बढ़ जाता है  । छोटे भाई-बहन की जिम्मेदारी उस पर आती है। यह वक्त होता है जब वह अपने छोटे भाई-बहन में मल्यों को स्थापित करती है। फिर उसकी पराश्रय वाली स्थिति तब आती जब उसकी शादी कर दी जाती है।जब घर में उसकी सुनी जाने लगती है फिर वह जेठानी बनती है, सास बनती है और इन अवस्थाओं में फिर उसकी शक्ति का दायरा बढ़ जाता । इस तरह एक चक्र सा चलता रहता है।


इस संदर्भ में सोचने पर हमारे लिये जो परिर्वतन की दिशा बनती है वह यही है कि हमें महिला के जीवन में जो पराश्रित, शक्ति विहिनता की अवस्थायें है उनका शक्तिकरण करना है उसमें महिलायें और पुरूष दोनो काम कर सकते है महिला अपनी सशक्त अवस्था में अपने भाई-बहनों को क्या मूल्य दें? कैसे लड़को को इस तरह ढाले की वह लड़के-लड़की में भेद करना छोड़ दें। उसी तरह लड़की में भी ऐसी सोच को विकसित करें।


यहाँ सिर्फ पुरूष प्रधानता का सवाल नहीं है। महिलाये भी तो वही संस्कार स्थापित करती आयी है, जिनके खिलाफ आज हम लड़ रहें है। महिला को उस समय जब उसकी शक्ति का दायरा बढ़ा हुआ हो और परिवार में उसका प्रभाव हो, उसकी सुनी जा रही हो-उस अवस्था को अपने स्वःशक्तिकरण के लिये उपयोग में लाना चाहिए और इस कार्य में पुरूषों को साझेदारी भी सुनिचित करनी चाहिए।