जन-आंदोलन के बीच नारी स्व: शक्तिकरण... गांधी की नज़रों से

नारी स्वः शक्तिकरण का विचार नारी आंदोलन में महात्मा गांधी द्वारा चलाये आंदोलन में मानती हूँ। जितने भी जन आंदोलन हुए है उनमें समूह को महत्व दिया गया, बहुत से लोग एक साथ खड़े हो और हथियार उठा ले या क्रान्ति का बात करें लेकिन व्यक्ति के विकास को महत्व नहीं दिया गया। गांधीजी की विचारधारा में व्यक्ति के स्वयं विकास, स्वःशक्तिकरण की स्वशक्तिकरण की बात थी। उन्होंने व्यक्ति पर जोर दिया उन प्रक्रियाआ पर जो विकास में सहायक होती है। व्यक्ति आज जो शक्तिहीन है उसको सशक्त करना है इसलिये नारी को सशक्त करने की ज्यादा जरूरत हैं उसे यह अहसास दिलाना है कि वह व्यक्ति के रूप में महत्व रखती है। उसकी प्रजनन प्रणाली महत्वपूर्ण है, उसके कार्य का मूल्य है। पहले तो उसे स्वंय यह समझना है और फिर समाज को है।


नारी स्वःशक्तिकरण में दो बातें है-स्वंय का विकास और स्वंय के आत्म सम्मान का विकास। स्त्री को अपना आत्म सम्मान फिर से पाना है। नारी सशक्तिकरण की जरूरत है उसके अधिकारों के हनन को रोकने के लिये। आज महिला को उसके उत्पाद के लिये बाजार में उचित मूल्य नहीं मिलता, यह उसके अधिकारों का हनन है उसके प्रति समाज और राज्य दोनों हिंसा कर रहे है। पुलिस स्टेशन में समाज के रक्षक उसके साथ बलात्कार कर देते है। दो समुदायों के बीच जब दुश्मनी होती है तो वे महिला के शरीर से बदला लेते है जन आंदोलन में आजादी से लेकर आज तक महिलाओं की बड़ी भूमिका रही है। भूमिका तो  बराबर की रहती है लेकिन हक बराबर का नहीं मिलता। यहाँ हक देने के बजाय उनका उपयोग होता है कहने को कह देते है कि महिलायें तो आंदोलन में हिस्सा ले रही है। तो मेरा कहना है कि समाज ने, राजनीति ने बाजार ने महिलाओं के साथ बड़ी धोखाधड़ी की है।


हमारे यहां महिला सशक्तिकरण की पश्चिम से ज्यादा सम्भावनाये है। वहाँ महिला की स्थिति बहुत खराब है जब तक उसके पास पैसा नहीं होता तब तक उसकी कोई पूछ ही नहीं होती लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं है, बस जरूरत है पुरूष प्रधान के अधूरे सोच को समाज में समग्रता के साथ देखा जाना चाहिए ।


शोषण को अगर हम सिर्फ महिला के संदर्भ देखते हैं तो वह बहुत सीमित सोच है उसी तरह सिर्फ पुरूष प्रधानता की बात करने वाले भी संकीर्ण का बात करने वाले भी संकीर्ण सोच रखते है। इसे मै मध्यमवर्गीय सोच कहती हैं मानती हूँ कि इस सोच को बनाने में कभी दलित महिला के बारे में नहीं सोचा गया, न हमने आदिवासी महिला के बारे में सोचा इस पर चर्चा जरूरी है भारत के संदर्भ में शोषित कौन है? पाश्चात्य देशों में मध्यम वर्ग सबसे बड़ा वर्ग है। ऊंचे और निचले तबके में बहुत थोड़े से लोग है। हिन्दुस्तान के संदर्भ में देखें तो मध्यमवर्ग कितना है? क्या दलित,अल्पसंख्यक, आदिवासी पुरूष के हाथ में किसी प्रकार की सत्ता है? कोई नियंत्रण है? आप कह सकते है कि अपने समुदाय में तो उनका नियंत्रण है लेकिन आपको फिर पूरे समाज को दूसरी नजर से देखना होगा। पूरे समाज की जब बात होती है तो उन पुरूषों के हाथ में भी कुछ नहीं है। वे समाज, राजनीति को कहाँ प्रभावित कर पाते है पुरूष प्रधानता परिवार के दायरे में तो ठीक लगती है लेकिन सामाजिक स्तर पर राजनीति में, संस्कृति में परिवार के स्तर पर पुरूष प्रधानता की सोच से काम हो सकता हे और हो भी रहा है। लेकिन जब तक नारीवादी आंदोलन दलितों के आंदोलन से नहीं जुड़ेगा तब तक शोषण की तो आप बात कर ही नहीं रहे फिर महिलाओं के जीवन में क्या परिवर्तन ला पायेंगे आप? आज जरूरत यही है कि नारीवादी आंदोलन समाज के अन्य जन-आंदोलनों से जुड़े।


यह सोच की कोई शासक है और कोई शासित है। सिर्फ पुरूष और महिला तक सीमित नहीं है एक बडी जाति की महिला दलित महिला पर हुक्म चलाती है आप अपनी बच्ची के साथ और अपनी नौकरानी के साथ व्यवहार देख लीजिये यह हुक्म चलाने और मानने वाली बात कई सीमाओं को (जाति, वर्ग, आदि) लांघती है। यह हम गांधी विचारधारा में ज्यादा बेहतर समझ सकते है।


महिला के जीवन में कुछ अवस्थाये आती है जब उसके हाथ में शक्ति होती है उसका प्रभाव होता है। पुरूष प्रधानता की धारणा को हम सिर्फ यह कहकर कम नहीं आंक सकते कि वह तो मध्यमवर्गीय धारणा भर है। पुरूष प्रधानता एक बादल के समान है जो पूरे समाज पर छायी हुई और उसको प्रभावित कर रही है।महिला के जीवनकाल में आने वाली कुछ सशक्तिकरण की अवस्थाओं के बारे में कहती हूं कि इन अवस्थाओं में उसका प्रभाव बढ़ जाता है, उसकी बात सुनी जाती है। वह पूरी तरह पराश्रित नहीं रहती जबकि उल्टे उस पर निर्भरता बढ़ जाती हैपरंतु ऐसा नहीं है कि वह जमीन के लेन-देन जैसे मामले संभालने लगती है। ये अवस्थायें उसके पूर्ण सशक्तिकरण की अवस्था नहीं होती लेकिन उसमें असीम सम्भावनाएँ जरूर होती है जिनका वह उपयोग कर सकती है।