भारतीय नारी के काल–खंड

इक्कीसवीं सदी में भारतीय नारी आज ऐसे दो राहे पर खड़ी है जिसकी एक राह उसे भारत के सुदूर अतीत की ओर ले जाती है तो दूसरे पाश्चात्य बाह्य आडम्बर की ओर आकर्षित करती हैहमारा आज दिग्भ्रमित हो ऊँची नीची संकरी राहों पर गतिशील हैं ऐसी स्थिति में यदि हम अपने गौरवमय कल' अर्थात वैदिक काल की ओर दृष्टि पान करें तो वर्तमान को दिशा निर्दिष्ट करने में सहायता प्राप्त हो सकती है।


वैदिक काल में महिला' सम्बोधन प्रचलन


वेदों ने माता को सर्वाधिक आदरणीय स्थान देकर गुरू माना है। वस्तुतः पूज्य होने के कारण ही नारी के लिए महिला' सम्बोधन प्रचलित है। सुकन्या होकर वह व्यक्ति के सत्यम् को माता बनकर शिवम् को तथा नारी होकर नर के सुन्दरम् को प्रकट करती है। वैदिक काल में राज महिषी को राजकार्य में प्रमुख स्थान प्राप्त था । वहाँ पुरोहित सेनानी एवं समग्रह नामक रत्नों के साथ ही महिषी' को भी रत्न संज्ञा से अभिहित किया गया है। वैदिक कालीन परिवारों में घर की बड़ी स्त्री, अपने पति के अधीन रहते हुए भी समस्त गृह प्रवन्ध की संचालिका होती थी घर के सारे कार्य उसकी संरक्षण में तथा उसी की इच्छानुसार होते थे। स्त्री शिक्षा का यथेष्ठ प्रचार था। गार्गी, मैत्रयी आदि स्त्रियों ने शास्त्रार्थ में अपने नाम को गरिमा प्रदान की थी। उच्च शिक्षा प्राप्त ब्रह्मवादिनी नारियाँ वेदाध्ययन करती, कवितायें बनातीं और त्याग तपस्या के द्वारा ऋषि भाव प्राप्त करके मंत्रों का साक्षात्कार भी कर लेती थी। स्त्रियाँ पति के साथ युद्ध में जाकर उनके रथ का संचालन किया करती थींवेदकाल में अदिति, उषा, इन्द्राणी, इला, सीता, सूर्या, सरस्वती आदि नारियों का भी उल्लेख हुआ है। समाज में नारियों का महत्वपूर्ण स्थान था। दुहिता, पत्नी और माता तीनों रूपों में नारी सम्माननीय थीउस समय बाल विवाह के संकेत नहीं मिली अतः युवावस्था में ही विवाह होते थे उपनिषद काल में लोग विदुषी, सुकन्या की प्राप्ति के लिये भगवान से प्रार्थना किया करते थे।


रामायण काल में स्त्रियां


रामायण काल में स्त्रियों को विशेषतः क्षत्रिय कन्याओं को धनुर्विद्या आदि राजधर्म से सम्बन्धित शिक्षा दी जाती थी, जैसा की कैकेयी, तारा और सीता आदि के कृत्यों से स्पष्ट हैश्री रामचन्द्र जी ने स्वंय कहा है कि सदाचारिणी स्त्री सबके लिए पूजनीय है। महाभारत काल में भी स्त्रियों को पूजा के योग्य तथा महाभाग्यशीला माना गया। मनुस्मृति में तो इस तथ्य को पुष्ट किया गया कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते हैंअन्य स्मृतिकारों के विचार में भी नारी साक्षात देवी और लक्ष्मी की अवतार है। वह भगवती दुर्गा की प्रतिमूर्ति है। याज्ञवल्वभ' ने कहा है कि माता देवताओं से भी अधिक पूज्य है।


वीरगाथा काल में नारी


 वीरगाथा काल में नारी युद्धों का कारण और साध्य बना दी गई फिर भी उसने विदेशियों के सामने आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा जौहर की ज्वालाओं का अभिनन्दन किया है और पुरूषों को शूरवीरता की प्रेरणा दी हैं यह कृत्य नारी के महान बलिदान और उच्च आदर्श का प्रतीक हैतत्कालीन स्वयंवर प्रथा में भी कन्या की इच्छा का न्यूनतम स्थान था। माता-पिता द्वारा आमंत्रित व्यक्तियों के अतिरिक्त यदि वह किसी को चुनना चाहती थी तो संयोगिता की भाँति पृथ्वीराज जैसे वर को युद्ध का संकेत देना पड़ता था। नारी की राजनैतिक और सामाजिक स्थिति शोभा तथा पुरस्कार मात्र थीस्वतंत्र रूप में उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं था। भक्तिकाल में तुलसीदास की नारी भावना मर्यादित और आदर्श है। 'रीतिकाल' की नारी भावना ने फिर एक मोड़ लिया यहाँ नारी के भोग्या रूप को प्रधानता प्राप्त हुई । इस प्रकार हमारा 'कल' आदर्श और यथार्थ की वीथियों को पार करता हुआ वर्तमान की चतुर्मुखी प्रगति की ओर उन्मुख हुआ है


आज की नारी


आज की नारी में आत्म दैन्य के स्थान आत्मविश्वास का स्वाभिमान भरा तेजोमय भाव प्रखर भारतीय नारी में अद्वितीय क्रियाशक्ति है। उसका कार्य क्षेत्र बाहर, समाज, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्र तक विकसित है। इतना होते हुए भी उसकी स्थिति एक पराश्रित वामन जैसी है। आज भी वह परिवार में इच्छानुसार हाँ, को हाँ, और 'नहीं' को नहीं कह पाने में असमर्थ है।