अबला और सबला के मध्य सन्तुलन अति आवश्यक

परित्यक्ता सीता को संरक्षण प्रदान करने वाले वाल्मीकि जैसे पुरुष पहले तो आज मिलना कठिन है और मिल भी जाये तो क्या समाज इन्हें जीने देगा? पढ़ने और नौकरी करने का पुरस्कार यदि भारतीय नारी को गृह निर्वासन के रूप में मिला तो देश सुयोग्य पत्नियों और सुयोग्य माताओं से वंचित रह जायेगा । कभी-कभी नारी स्थिति और नारी समस्या से संवन्धित प्रश्न काव्य स्वरों में इस प्रकार झंकृत हो उठते हैं'नारी अबला या सबला है, यह प्रश्न, प्रश्न रह जाते हैं, उस बेचारी के हाथों में, युग-युग से कच्चे धागे हैं


आज भी पुरुषों के बराबर बाहर कार्य करके घर में आकर उसे कोई स्वागत सत्कार नहीं मिलता। उल्टे पति की प्रताड़नापूर्ण दृष्टि और कटु वचन उसकी प्रतीक्षा करते रहते । वह सबकी सुख सुविधाओं का साधन है किन्तु क्या कभी भूले से भी किसी ने उसकी सुख सुविधा के विषय में सोचा है । उसका पहला कार्यक्षेत्र घर है। किन्तु अधिकारपूर्वक अपना कहा जाने वाला उसका कोई घर नहीं । व्यक्तिगत और समाजिक यंत्रणाओं से त्रस्त आज की नारी कहीं साहसी बनकर परिस्थितियों से संघर्ष करती है तो कहीं भयभीत होकर अग्नि की लपटों में अपने आपको झुलसा देती है। परिवार में भी पति तथा अन्य सम्बन्धी शिक्षित तथा सुलझे विचारों के हुए तो उसे दिशा निर्देश मिल जाता है अन्यथा आये दिन उसे पति के पाशविक अत्याचारों और मारपीट को सहन करना पड़ता है। घर निकाल देने की अकारण धमकी को भी वह जहर का सा घूट पीकर सुन लेती है। कानून का सहारा यदि एक बार लेभी लिया यह प्रश्न सदैव उसके सामने सिर उठाये खड़ा रहता है कि बाद में अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए कहाँ जाये पुरुष प्रधान समाज में पिता, पति, पुत्र के संरक्षण के बिना वह काम करके जी भी नहीं सकती।


इक्कीसवीं सदी का स्वप्न जब हमने अपनी आँखों में सँजो ही लिया है तो यह बताना भी आवश्यक हो जाता है कि इक्कीसवी सदी की नारी कैसी होगी या कैसी होनी चाहिए? हम जो नारी चेतना का बीजारोपण आज करने जा रहे हैं, उसकी जड़े सुदूर अतीत में होगी। उस अतीत में जहाँ नारी अपनी योग्यता और कर्म से अपनी सार्थकता सिद्ध करती थी। वह मात्र प्रदर्शन के लिए ही पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चलेगी प्रत्युत वास्तविक रूप में पुरुष की सहधर्मिणी और सहचरी होगी । शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण होकर भी वह दुस्साहसी नहीं होगी।