नारी स्वतन्त्रता, समानता तथा सहभागिता को लेकर समाज की दोहरी मानसिकता

राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में नारी -जाति की प्रमुख भूमिका रही है उन्हें दीर्घकालीन ऐतिहासिक संघर्ष करना पड़ा है। वह नारी, जो कभी परिस्थितियों का मूक दर्शक हआ करती थी और अशिक्षा. सती–प्रथा, पर्दाप्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, दहेज-प्रथा, विवाहसम्बन्ध-विच्छेद परित्यक्ता-जीवन, विवाह, यौन उत्पीड़न, व्यभिचार, बलात्कार, हत्या आदिक न जाने कितने ही अमानवीय आचरण उसे ग्रस्त और त्रस्त कर, उसके अस्तित्व को चुनौती देते आ रहे हैं। आन्दोलनों और सुधारों के फलस्वरूप उसके जीवन में आत्मनिर्णय के अधिकार का संचार हुआ है। उसने अपने मौन को तोड़ा है। निष्क्रियता को समाप्त किया है तथा अपनी नियति बदलने का साहस भी प्रदर्शित किया है


नारी के जीवन में व्याप्त विषमता शोषण तथा यातना के विरुद्ध अब एक अनुशासित वातावरण बन चुका है। इस दिशा में शासनिक-आशासनिक स्तर पर प्रयास प्रारम्भ हुए है परन्तु सत्ता की राजनीति के आधार पर योजनाओं का क्रियान्वयन होता आ रहा है, जिसके परिणाम और प्रभावस्वरूप नारी का सर्वांगीण उन्नयन लक्षित नहीं हो रहा है। नारी के अनवरत संघर्ष और कतिपय उदारवादी पुरुषवर्ग के स्नेह-सौजन्य के कारण आज एक सीमा तक उसकी स्वतन्त्र पहचान बनी है। उसे शक्ति, सदाशयता, सौजन्य तथा सान्त्वना अर्जित हुई है, साथ ही शौर्य और साहस भी। निस्सन्देह, शक्ति और सत्ता के लिए संघर्ष करके नारी ने अपने जीवन को समय-सापेक्ष अर्थ दिये हैं। इसके बाद जो भी परिवर्तन हुआ है, उसे 'मात्रात्मक परिवर्तन ही कहा जा सकता है गणात्मक विकास अभी शेष है। नारा-जावन का अधिकांश भाग नियतिवादी जीवन जीने के लिए विवश है। नारी का संसार अशिक्षा, अन्धविश्वास, कुपोषण तथा पराधीनता का पर्याय बना हुआ है। आँकड़ों पर यदि विश्वास किया जाये तो ज्ञात होता है कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग ५,००० नारियाँ दहेज हत्याओं में मारी जाती हैं। परिवार में कन्या का जन्म आज भी अभिशाप बना हुआ भारतीय नारी आज विषमताएँ विद्यमान हैं। सत्य यह है कि औसत भारतीय ना देना, मंचों से गोखली प्रतिष्ठा कर से समाज के सम्मुख उसकी मान-सम्मान से आभूषित करते हुए, उसकी खोखली प्रति देना तथा मीडिया इत्यादिक माध्यमों से समाज के सा ती नहीं तब तक यह है। बालकों की तुलना म विषमताए ही करना में बालिकाओं के लिए अनेक वर्जनाएँ भी है । उसे निर्णय करने की स्वतन्त्र नहीं है। इन समस्त व त वैषम्य के आलोक में यह सुस्पष्ट प्रतीत होती है कि ' मान-सम्मान । है कि नारी को मात्र कतिपय अधिकार दे देना. मंचा देना तथा माडिया आता अतिशयोक्तिपर्ण मिथ्या गुणगान कर दना, 'नारी-शक्तीकरण लिए बाधक लिए बाधक है, साधक नहीं। वह जब तक स्वयं को आत करन म जाव जीवन सुख, सम्पन्नता तथा समाद्ध का प्रतीक नहीं बन तथा वह जितनी वास्तव में, है, उतनी दिखती नहीं तक । लक्ष्य पूर्ण कर पाना सम्भव नहीं रहेगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति सहायता, प्रतिवेदन तथा संरक्षण के सहारे ही नहीं हो सकती, अपितु उसके जीवन में स्वतन्त्रता, समानता तथा सहभागिता के कारकों को विकसित भी करना होगा। आधी-अधजी अथवा सीमित प्रगति 'यथास्थितिवाद' के अतिरिक्त और कछ नहीं है। इस आधार पर व्यवस्था का मूलभूत ढाँचा न तो बदल सकता है और न ही नारी पूर्ण सदइच्छा और स्वविवेक से वांछनीय मार्ग को चुनकर, आगे बढ़ सकती है। इस यथार्थ से हम अपनी आँखें नहीं चुरा सकते कि समय-परिर्वतन के साथ नारी-समुदाय ने एक ऊँची और लम्बी छलाँग लगायी है और अपनी नियति के पक्ष में सकारात्मक सर्जन कर रही है। नारी होने का अर्थ बदला है। उसका व्यक्तित्व परिमार्जित हआ है तथा सोच-विचार और चिन्तन का सामा व्यापक हुई है। सामाजिक इकाइयों के बीच नारी सुखद जीवन जीने का स्वप्न देख रही है। नारी-विमर्श सतत सक्रिय है तथा राष्ट्रीय महिला आयोग' अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। नारी के संवैधानिक अधिकारों को निश्चित किया जा चुका है। संसद् में नारी-कल्याण से सम्बन्धित अनेक कानून बनाये गये हैं, जबकि शासन ने इस दिशा में स्वाधार, स्वयंसिद्ध, र शक्ति, सुराक्षरी मातृत्व-जैसी कई योजनाएँ क्रियान्वित की हैं किन्तु समतामूलक दृष्टि के अभाव में उसे उसका अधिकार मिल नहीं पा रहा है। आज नारी-समुदाय के लिए पंचायतों में एक-तिहाई आरक्षण प्राप्त है, जबकि विधानमण्डलों और संसद में आरक्षण-विषयक प्रस्ताव लम्बित हैं। इसका दूसरा पहलू यह है कि आरक्षण के नाम पर पहली ओर, हमारा पुरुष-प्रधान समाज अपढ़-गँवार-अँगूठाछाप 'नारी' और का इस्तेमाल कर प्रभसत्ता का अधिकारी स्वयं बन बैठता है तो दूसरी ओर, कामिनी-रमणी-सदृश नेत्रियों को राजनीति के वैभव-ऐश्वर्यमन्दिर का दर्शन कराकर मन-परिवर्ततन करते हुए, उन्हें अपने उपभोग की सामग्री मान, उनका दोहन-शोषण करता है और उनकी स्त्री-सलभ दुर्बलताओं को समझकर, उसे अपने पीछे-पीछे चलाता रहता है। नारी की टस शोचनीय अवस्था और स्थिति क बृहद्स्तराय चुनावा तक में सहजता के साथ देखा जा सकता है। । की हैं किन्तु समतामूलक र मिल नहीं पा रहा है। आज एक-तिहाई आरक्षण प्राप्त है, ५ म आरक्षण-विषयक प्रस्ताव हसू यह है कि आरक्षण के नाम पर पढ़-गवार-अँगूठाछाप 'अनुसत्ता का अधिकारी स्वयं बन सदृश नेत्रियों को का दर्शन कराकर, मन-परिवर्ततन का सामग्री मान, उनका गुलम दुबलताओं को पलाता रहता है। नारी की इस स्पात का लघु स्तर के चुनावों से लेकर प्रश्न य ह : नारी-जाति को आज जो भी अधिकार और मित्व सौंपे जा रहे हैं वे आक्रोश प्रदर्शन प्रतिरोध याचना तथा ह, व आक्राश, प्रदर्शन, प्रतिरोध, याचना तथा संरक्षण के बदले में ही क्यों? क्या नारी के रूप हा क्या? क्या नारी के रूप में उन्हें उनकी स्वतन्त्र सत्ता का सौपने में पुरुष वर्ग की अहम्मन्यता सामने आ रही है? नारी 'नारी' के लिए घातक क्यों सिद्ध हो रही है? इधर, कछ वर्षों से नारी-जाति के मन-मस्तिष्क में कुछ एसा विसंगतियाँ घर कर गयी हैं, जो उन्हें अपराध की दुनिया में आने । क भागना अति से कुप्रभा अपने घरव्यवस्था तन्त्रों से सर नकारात्मक बाधक सिधा वातावरण उत्तरदा बाह्य वातावरण। इस जागरूक सदस्यों को चिन्ता करना जीवन पद्धति की दशा और दिशा क्या हा आज माता-पिता अपनी-अपनी ही समस्याओं और के लिए विवश कर रही हैं। आये दिन बालिकाओं का घर से भागना, असामाजिक तत्त्वों के साथ जुड़कर, बालिकाओं का आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त रहना, प्रेम-प्रसंगों की अतिवादिता के कारण आत्महत्या करना, अतिभौतिकवादी जीवन से कप्रभावित होकर अपने आचरण की सभ्यता को कलुषित करअपने घर-परिवार को कलंकित करना तथा भिन्न-भिन्न व्यवस्था तन्त्रों से सम्बद्ध होकर कमार्गगामिनी होना-- ये सभी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ नारी-जाति के उन्नयन की दिशा में अति बाधक सिद्ध हो रही हैं। निस्सन्देह, इसके लिए दो प्रकार के वातावरण उत्तरदायी हैं :-- पहला, अन्तः वातावरण और दूसरा, बाह्य वातावरण। इस ओर परिवार के बुद्धिमान, विवेकवान तथा जागरूक सदस्यों को चिन्ता करनी होगी कि उनकी पाल्या किन-किनकी संगति में है और उसकी स्वयं की दिनचयों और प्राथमिकताओं । प्राथमिकताओं को लेकर इतने व्यस्त और उलझे हुए हैं कि जिन सन्तानों के भविष्य के लिए वे पाप-पुण्य अर्जित कर रहे होते है, उनके प्रति उनकी व्यावहारिक और चरित्र-निमात्री दृष्टि का प्रभाव प्रत्यक्ष होता ही नहीं। यही कारण है कि अपेक्षित और वास्तविक संरक्षण के अभाव में ऐसी ही सन्तानें कुमार्गगामिनी होती आ रहा हैं। ऐसी ही बालिकाएँ आगे चलकर, अपना संस्कार भी संभाल नहा पातीं। अस्तु, भारतीय समाज को नारी-जाति के प्रति सहिष्णु बनना होगा और उसकी प्रत्येक आह और संवेदना में एकरूप होकर, उसे उसके लक्ष्य तक ले जाने के लिए आत्मनिर्भर करना होगा। इसमें सर्वाधिक भूमिका नारी-जाति की दिखनी होगी। देश की सरकारें सत्ता की राजनीति करती आ रही हैं। प्रतिवर्ष महिला दिवस, बालिका दिवस आदिक के उत्सव मनाकर हम अपनी पीठ ठोंक कर  खुश होते हैं।   


आज भी  नारी स्वतन्त्रता, समानता तथा सहभागिता को लेकर  समाज की दोहरी मानसिकता बनी हुई  है। इसे छिन्न-भिन्न कर, एक आदर्श स्थिति लाने के लिए नारी-जाति को पूर्णतरू स्वायत्तता सौंपनी होगी। नारी-विकास में शक्तीकरण और स्वावलम्बन की प्रक्रिया अनिवार्य है, जिसे बृहद् अर्थों में ग्रहण करना होगा। उसके जीवन में रचनात्मक विकास की सम्भावनाओं में अभिवृद्धि करनी होगी। पाक नारी का अर्थ जीवन के स्वस्थ और सन्तुलित प्रतिमान हो सकते हैं। यदि परिस्थितियाँ उनकी विकास यात्रा को बाधित करती हैं तो प्रबल आवेग के साथ ऐसे दुष्चक्र को तोड़ना, समय की माँग है। उन्हें अपने विरुद्ध बुराइयों से लड़ने के लिए दृढ़ निश्चयी बनना पडेगा। उन्हें न केवल साहसिक कदम उठाने होंगे अपित नारी-अस्तित्व की अवधारणा को मुक्त भाव के साथ परिभाषित करते रहना होगा और नारी-जीवन-हेतु जिजीविषा  का होना अथवा बनाये रखना अति आवश्यक है। कल्याणकारी कार्यक्रमों को नैतिकता के साथ तीव्रता प्रदान कर, इस स्वप्न को साकार किया जा सकता है।