देवदासियां और देवसमाज –हे भगवान

महिलाओं के कतिपय ऐसे विशेष वर्ग हैं जिन के विकास की आवश्यकताओं की अब तक उपेक्षा की गई है, जैसे कि देवदासियांदेवदासी शब्द का अर्थ है "भगवान की सेविका"। देश में इन के लिये अन्य अनेक नामों जैसे जगोती, बासवी, जोगता अथवा जोगप्पा (पुरुष) का प्रयोग किया जाता है। यह प्रथा धार्मिक प्रयोजन के लिये आरम्भ की गई थी तथा उत्तरी कर्नाटक में इस की जड़ें बहुत गहरी पैठ गई और यह तमिलनाडु तथा आन्ध्र प्रदेश में भी फैल गईदेवदासी प्रथा का जन्म 9वीं से 11वीं ईस्वी में हुआ था और कुछ समय पश्चात इस ने एक सामाजिक बुराई का रूप धारण कर लिया। महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के कई भागों में प्रतिवर्ष एक विशेष पूर्णिमा के दिन (जनवरी/फरवरी मास में) सैंकड़ों बालिकायें देवी येल्लम्मा को "समर्पित" कर दी जाती हैं। आरम्भ में समाज की सामाजिक व धार्मिक संरचना में उनका एक निश्चित स्थान था। देवदासियों को अपने देवताओं की पत्नियां समझा जाता थाऔर वे समाज के प्रति अपने विशिष्ट कर्तव्यों को पूरा करते हुए एक निश्चित भूमिका अदा करती थीं। उनका आदर किया जाता था और उन्हें सभी दावतों एवं त्यौहारों पर आमंत्रित किया जाता था और कर्मकाण्डी भोजन तथा उपहार दिये जाते थे। गांव के बड़े-बूढों की तरह उन के कतिपय अधिकार थे और उन्हें कुछ कर्तव्यों का पालन करना होता था।किन्तु, शनैः शनैः देवदासियों ने इन अधिकारों तथा समाज में अपने सम्मानजनक स्थान को खो दिया। आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा तथा धार्मिक अनुष्ठानों के संस्कृत-करण के कारण अनेक स्थानीय अधिकार एवं धार्मिक अनुष्ठान त्याग दिये गये और देवदासियों ने, जिन्हें स्थानीय स्तर पर धार्मिक नेता समझा जाता था, अपनी भूमिका को खो दिया है। धार्मिक भूमिका और प्रतिष्ठा को खो देने से देवदासियों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाने लगा और उनके साथ मात्र यौन-तृप्ति के साधन जैसा व्यवहार किया जाने लगा। धार्मिक पुरुषों एवं मन्दिर के पुजारियों द्वारा अन्य लोगों के साथ मिलकर इन बालिकाओं से वेश्या का धंधा करवाने की बात सर्वविदित है। एक अनुमान के अनुसार, भारत में वेश्यावृत्ति करने वाली कुल महिलाओं में देवदासियों की संख्या लगभग 15 प्रतिशत है


देवदासी प्रथा और वेश्यावृत्ति के धंधे का आपस में गहरा सम्बन्ध हो गया है। एक ओर गरीब तथा अज्ञानी माता-पिता और दूसरी स्वार्थी पुजारियों तथा वेश्यालयों के दलालों की मिली-भगत से सीधी-सादी बालिकाओं को वेश्यावृत्ति के घृणित धंधे में लगाने के लिये इस प्रथा का बड़ी सफलता से प्रयोग किया गया है


देवदासियां गरीब और अनपढ़ होती हैं और अक्सर समाज द्वारा धर्म के नाम पर इनका शोषण किया जाता हैअनेक प्रवंचनायें, जैसे बच्चों के लिये पिता के वरदहस्त का अभाव, भिक्षावृत्ति से जीवन व्यतीत करना तथा वृद्धावस्था में आय का कोई साधन न रहना देवदासियों के अस्तित्व का अभिशाप हैं।  कर्नाटक में एक स्थानीय मेडिकल कालेज द्वारा की गई, 2,106 देवदासियों की जांच से यह पता लगा कि उन में से 168 एड्स की बीमारी से ग्रस्त थीं और 191 अन्य रति रोगों से पीड़ित थीं


सम्बन्धित राज्यों ने देवदासियों को प्रतिष्ठित व्यवसायों में बसाने में उन की सहायता करने के लिये कई एक योजनायें आरम्भ की हैं, जिन में इस प्रथा की बुराइयों के बारे में जागरूकता पैदा करना, इस के साथ ही विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण और उनके लिये सहकारी समितियां बनाना सम्मिलित हैं। देवदासियों को मकान दिलाने के लिये भी पहल की गई है।


हाल में देवदासियां सरकारी उपायों और अधिक अच्छी नौकरियों के अवसरों के कारण इस प्रथा के विरुद्ध विद्रोह कर रही हैं। किन्तु इन कारणों से इस प्रथा ने चिरस्थायी रूप ले लिया है: (क) देवी येल्लम्मा में धन-सम्पदा, सौभाग्य और शारीरिक कष्ट एवं रोग से मुक्ति देने वाली देवी के रूप में गहरी आस्था; (ख) देवदासियों में अनुमानित 70 प्रतिशत तक बहुत अधिक निरक्षरता का होना; (ग) देवदासियों के गढ़ का सूखा-पीड़ित क्षेत्र होना; (घ) देवदासियों द्वारा भिक्षावृत्ति को समाज की मंजूरी । इस के अतिरिक्त त्यौहारों के अवसर पर उन्हें वस्त्र आदि के उपहार दिये जाते हैं। 


इस प्रथा की उपरोक्त बुराइयों को देवदासियों तथा जनसाधारण ने भी महसूस किया है। तथापि, इस प्रथा का तब तक समूल नाश नहीं किया जा सकता जब तक कि सारे समाज को इस परिवर्तन को लाने के लिये संगठित न किया जाये। इस के लिये देवदासियों एवं उनके हितैषियों, सरकार, पुलिस और स्वयंसेवी संगठनों का सहयोग चाहिए।