आओ हवा-पानी बदलें

देश में पर्यावरण की स्थिति पर गौर करें तो पता चलता है कि पर्यावरण से जुड़ी समस्याएँ लगातार बढ़ती जा रही है। इसके विपरीत हम इन समस्याओं का समाधान ढूँढ पाने में असफल रहे हैं। आज सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण के अंदर व्यक्ति के विकास को सुनिश्चित करने की हैं। आमतौर पर लोग विकास और पर्यावरण को एक-दूसरे का विरोधी बताते बताते हैं पर ऐसा नहीं है, बशर्ते विकास की नीति पर्यावरण का ध्यान रखने वाली हो पर्यावरण की चिंता इस देश में नई नहीं है भारत में 1970 में पहली बार इसकी चिंता सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही स्तरों पर की गई थी। इसी समय चिपको आंदोलन शुरू हुआ था और लोगों ने जंगल काटने का विरोध किया था। इसका आशय यह नहीं था कि जंगल नहीं कटना चाहिए। इनका सवाल था कि जंगल काटेगा कौन और ने नई पर्यावरण इस पर हक किसका है। यह सवाल तब भी था और अब भी है। 70 के दशक में ही वाइल्ड लाइफ एक्ट आया। प्राणी संरक्षण दशक में ही वाइल्ड लाइफ एक्ट आया। प्राणी संरक्षण उद्यानों की रक्षा और रखरखाव की बात की गई। प्रोजेक्ट टाईगर भी इसी समय शुरू हुआ। 80 के दशक में गंगा की सफाई के लिए 'गंगा एक्शन प्लान' लागू किया गया और जंगलों का घनत्व बढ़ाने के लिए नेशनल फॉरेस्टेशन मिशन चलाया गया। 90 के दशक में इस बात की चिंता सबसे ज्यादा थी कि पर्यावरण और विकास को किस तरह साथ-साथ लक चला जाए. क्योंकि विकास के जिस मॉडल को सरकार ने अपनाया था वह पर्यावरण के ऊपर दबाव डालता है।आखिर क्यों एक गरीब या विकासशील देशों को पर्यावरण की चिंता करनी चाहिए।  पर्यावरण को सुधार कर ही गरीबी हटाना या आर्थिक विकास संभव है। दरअसल इस देश में पर्यावरण के प्रति जैसी सोच है, उसका यदि सही इस्तेमाल किया जाए तो हम दुनिया को दिशा दिखा सकते हैं। जो भी व्यक्ति पर्यावरण की चिंता करता है वह यह नहीं कहता कि विकास नहीं होना चाहिए। पर सवाल यह है कि इस विकास में आम आदमी के लिए स्वच्छ पानी और हवा के साथ बेहतर स्वास्थ्य की चिंता दिखा सकते हैं या नहीं। विकसित हो या विकासशील देश, कहीं की सरकार नहीं कह सकती कि स्वच्छ पानी और हवा का सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। यह स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है फिर पर्यावरण की नीति किसके लिए बनाई गई है ? गरीबों के लिए या दिल्ली के लोधी रोड पर रहन वाले उन नौकरशाहों के लिए जिन्हें यह जान कर कोई फर्क नही पड़ता कि कौन डायरिया से मर रहा है कौन कैंसर से। की समस्या से जुडे अहम सवालों टान क्या होगासरकार को चाहिए कि वह नहीं से पर्यावरण मंत्रालय की स्थिति सुधारे। नीतियाँ की जिम्मेदारी इसी की है। यदि सरकार को चाहिए कि वह इस की खोजबीन करे कि आखिर पर्यावरण मंत्रालय कमजोर क्यों हैं? हमने पिछले छः वर्षों से दिल्ली में वायु प्रदूषण खिलाफ मुहिम चलाई है और प्रदूषण के स्तर को कम करने में सफलता भी मिली है। सरकार ने इस नीति में पारदर्शिता लाने की बात भी की है। लेकिन ऐसा कहना आसान है पर व्यवहार में लाना कठिन । क्या इस नीति में यह चर्चा की गई है कि सरकार इनवायरनमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट की रिपोर्ट सार्वजनिक करेगी। शायद नहीं। दरअसल, इस समय हम विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। इसलिए रोज नई चुनौतियाँ सामने आ रही है। पर्यावरण की एक गडबडी ठीक होती है तो तब एक से अधिक गड़बड़ियाँ खड़ी हो जाती हैं। जैसे विकास की रफ्तार बढ़ेगी तो पर्यावरण की चुनौतियों बढ़ेंगी इससे बचने का रास्ता यह है कि हम विकास की दिशा तय करें। अभी जो विकास हुआ है उसमें एक स्तर तक पर्यावरण की अनदेखी हुई है इसीलिए संतुलन बिगड़ा है। पिछले एक दशक में अंधाधुंध विकास और पर्यावरण की क्षति रोकने के प्रयास साथ-साथ होते रहे ढेर सारी पर्यावरण की संस्थाओं ने आमलोगों में जागरूकता पैदा करने की कोशिश की। सरकारी परियोजनाओं में भी पर्यावरण सुरक्षा को एक मुद्दा बनाया।जो आम आदमी के स्वास्थ्य का मामला या हमारे पर्यावरण का मुद्दा इतनी चर्चा में है तो इसके पीछे गैर सरकारी संस्थाओं और लोगों के निजी प्रयासों का बड़ा हाथ है साथ ही अदालतों ने भी अच्छी और निर्णायक भूमिका निभाई है इसलिए हवा और पानी के प्रदूषित होने की दर नियंत्रित करने में कुछ हद तक सफलता मिली लेकिन पर्यावरण आम आदमी का सरोकार बन गया है और सरकारी का मुद्दा हो गया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले समय में हालात सुधरेंगे।