आधी आबादी की आजादी – आधी अधूरी अब मंजूर नहीं

आचार्य चतुरसेन ने अपने बहुचर्चित उपन्यास 'वयं रक्षाम; में स्त्री देह पर पुरूष की एकाधिकारवादी मनोवृत्ति पर बडी सीधी चोट की है। चतुरसेन की जो नायिका हैं, वह पुरूष से बहुत साफ- साफ शब्दो में सवाल पूछती है कि तू दाता है या याचक? पुरूष का उत्तर-प्यार का याचक हूँ। नायिका जवाब देती है-'तो याचक ही रह, दाता का दंभ न कर। वह महिला जो टिप्पणी कर रही है-यह दरअसल एक पूरे स्त्री समाज की इच्छा है, आवाज है। बहुत अच्छे ढंग से उस मनोविज्ञान को समझाने की कोशिश की गयी है। उसकी बानगी है


मेरी यह मर्यादा है कि एक स्त्री का एक ही पुरूष की अनुबन्धित हो। ' यहां पुरूष स्त्री देह पर एकाधिकार छोड़ने को किसी सूरत में तैयार नहीं होता। वह देह की मुक्ति के खिलाफ तर्क ढूंढता है और प्यार का औजार बनाता है। यह अलग बात है कि कभी-कभी वह स्त्री के मान मनौव्वल भी कर लेता है, अपनी दैनिक जरूरतों के लिए


दरअसल पुरूष का वास्तविक रूप अधिनायकवादी होता है। इसके पीछे सामाजिक मनोविज्ञान दोषी हैक्योंकि बच्ची को पाला इसलिए ही जाता है कि अवसर आने पर उसे किसी एक पुरूष को सौंप दिया जाए। और साथ में उसकी आंचल की गांठ में यह नसीयत बांध दी जाए कि अब तुम्हारे भाग्य के स्वामी, परमेश्वर यही हैं-अच्छे या बुरेयानी कहीं कोई पुनर्विचार या अपील की गुंजाइश नहीं, ना ही तर्क-वितर्क के लिए कोई जगह क्योंकि बहस पुनर्विचार और तक-वितर्क सब साथियों के बीच होते हैं, बराबर वालों में होते हैं, भाग्य विधाता या भाग्य के स्वामी से नहीं। इसलिए यहां दरवाजे बंद होते हैं और अगर कोई ज्यादा क्रांति कर जाए, दरवाजे की मोटी संगल को खेलने का दुःस्साहस कर बैठे तो उसके लिए बाबा आदम के जमाने से समाज के पास एक विशेषण है ही कि तू कुलटा है। यानी बंद कमरे में बेजुबान होकर भोगे जाने के लिए तैयार रहिए, तब आपका चरित्र अच्छा है। आप आवाज उठाएंगी तो कुलटा मानी जाएंगी। वक्त के साथ कमरे बदले हैं, गांव से शहर के हो गए, लेकिन कमरों के भीतर का मिजाज नहीं बदला।


स्त्री और उसकी देह के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यही है। स्त्री की बहुआयामी मुक्ति का सवाल तब तक बेमानी है, जब तक उसकी देह को मुक्ति नहीं मिलती। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक इन क्षेत्रों की जो मुक्ति है, वो तो बाद की बातें हैं। मुक्ति की पहली कसौटी 'देह' है। आप देह मुक्त नहीं हुए तो बाकी सारी 'मूक्तियां' बेमानी हैं। अगर स्त्री-पुरूष के बीच देह के स्तर पर रिश्ता, बेजुबान जमीन बौर किसान का रहेगा, तब फिर बाकी सारी मुक्तियों की बात पाखंड है, आडम्बर है।


पत्नी की प्राथमिक ड्यूटी क्या हुई? यही न कि वह पति के मन का मनोरंजन करे। ऐसे में कैसे रहेगी बौरत की देह आजाद? पति का मनोरंजन ही जहां कसौटी हो जाए, वहां से फिर मुक्ति का रास्ता कैसे खुलेगा?


व्यक्ति अपनी पूंजी का खुद स्वामी होता है। अब इसमे एक बात यह भी सामने आती है कि हमारे यहां आदिकाल से एसा होता आ रहा हो, ऐसी संभावना नहीं दिखती। ये विकृतियां बाद में आयी। शरत में खासतौर पर वैदिक काल में स्त्री देह की स्वतंत्रता को बहुत ज्यादा तो नहीं, कुछ मान्यता रही होगी। क्योंकि हमारे यहां 'भोग' का निषेध रहा। समान भोग को मान्यता मिली। इससे साबित होता है कि देह पर पुरूष का एकाधिकार नहीं था। मर्द अपने हिसाब से उसे हांकता नहीं था। यह तो सैद्धांतिक पहलू है। अब व्यवहारिक पहलू की ओर जाएं तो पता चलता है कि आज भी स्त्री पुरूष को आनंद देने की मूर्ति हैतनावग्रस्त को स्वीकार करती है। यहां उसके पास 'हाँ' या ना करने का अवकाश नहीं होता और यहीं से आरंभ होती है देह की पराधीनता एक अंग्रेजी कविता का हिंदी अनुवाद है, चल बिस्तर पर पड, कपड़े उतार, यही है इस देश का रिवाज' औरतों के मामले में विकासशील देश में यही चलन है


स्त्री और पुरूष-यह दोनों देह एक दूसरे की पूरक हैं। यहां मुक्ति का अर्थ, अभिप्राय यह नहीं कि स्त्री पुरूष देह से दूरी मांग रही है। लेकिन स्त्री सम्मान के किसी भी अध्याय का यह पहला अक्षर है-कि कम से कम उसकी देह पर उसकी इच्छाएं' ही सर्वोपरि हों। देह पर दूसरों का अधिकार महज देह तक ही सीमित नहीं रहता। दरअसल यह अधिकार स्वाभविक रूप से अपना विस्तार करता चला जाता है। और फिर यही अधिकार स्त्री की सूचना सता को पुरूष वर्चस्व के तले 'बंदी' बना कर खड़ा कर देता है। इसलिए मामला केवल स्त्री देह और उसके नाजुक अंगो तक ही सीमित नहीं है। वस्तुतः देह की मुक्ति ही स्त्री मुक्ति की पहली सीढ़ी है। इसलिए यह सवाल बडा है और अहम है।


हमरे यहां कहा गया कि 'पत्निय मनोरमा देह ' यानी पत्नी की प्राथमिक डयूटी क्या हुई? यही न कि वह पति के मन का मनोरमा करे। ऐसे में कैसे रहेगी औरत की देह आजाद? पति का मनोरमा ही जहां कसौटी हो जाए, वहां से फिर मुक्ति का रास्ता कैसे खुलेगा?


स्त्री देह की मुक्ति इस नाते भी अहम है, क्योकि पुरूष दंभ का परवान चढना भी यहीं से शुरू होता है। बाहरी दुनिया में औरत भले ही अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ ले, पर नाकारा से नाकारा मर्द भी यह सोचकर अपने आंतरिक दंभ पोस लेता है कि आखिर रात को कहां जाएगी?' देह मुक्ति से जुड़े कई-कई सवाल ऐसे हैं जो औरत को परेशान करते हैं। क्या स्त्री अपने आप को शिकार बनाकर ही कुछ पा सकती है? इसके लिए उसे निष्क्रिय वस्तु बनना पडता है, जैसे वह केवल एक समर्पित प्रत्याशा भर हो। क्यों ऐसा लगता है-स्त्री को, कि देह के खेल में वह अपना दान कर रही है। स्त्री मैच की ऐसी पार्टनर है, जो जूझने की बजाय हार जाना पसंद करती है, क्यों, क्यों? क्यों औरत के भीतर एक साथी नहीं, खांटी औरत को तलाशता है। औरत होने के एहसास को हर कदम पर जगाता रहता है। औरत की जिंदगी में दसरा मर्द आ जाए पहला मर्द उस पर पहरे बिठाने लगता है। औरत प्रारंभ में उसकी टोका टोकी के अंदाज पर रीझती है. बाद में उसे अपनी जिंदगी का एक हिस्सा मान लेती है। यही उसके पतन का कारण बनता हैपुरूष के सहारे जीने वाली औरतों का आत्मविश्वास ऐसे ही टूटता है। यही तो चाहता है पुरूष। घर में जो औरत हो, वह नख-दंत विहीन हो। स्त्री की देह सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे पुरूषों के समाज में देह मुक्ति मांगना किसी आंदोलन से कम नहीं। मुक्त आकाश में विचरण करने की आकांक्षा रखने से पहले औरत को देहमुक्ति करो। वरना स्त्री की बाकी तमाम शोरगुलनुमा आजादियों का क्या अर्थ? रास्ता यहां से नहीं, देह से शुरू होता है। जहां से बंधन शुरू होता है, मुक्ति भी वहीं से शुरू होगी और होनी भी चाहिए। क्या यह सच नहीं है?