महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के साथ हिस्सेदारी

 महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के साथ  हिस्सेदारी


 


राजनीति एक एसा क्षेत्र है जहां हर कोई अपनी किस्मत आजमाना चाहता है। भले ही लोगो की अलग- अलग मानसिकता होती है राजनीति में जाने की लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि क्या राजनीति में महिलाओं की भी हिस्सेदारी हो सकती है? बात अगर भारत देश की करे तो यहां हमेशा से पुरुषों ने अपना वर्चस्व दिखाया और महिलाओं को कमजोर साबित कर उन्हे बेहलाने और फुसलाने का काम किया। जिसका असर ये हुआ कि यहां की महिलाये हमेशा से डरी हुई और सहमी हुई रही।


लोकतांत्रिक देश भारत में समानता का अधिकार है पुरुषों और महिलाओं के लिये बराबर का अधिकार है। हम जब राजनीति के पहलु को देखते है तो आजादी से लेकर अब तक महिलाओं के लिये राजनीतिक क्षेत्र में बराबरी का अधिकार देखने को नही मिलता है। क्या महिला राजनीति नही कर सकती? क्या महिला राजनीति के धर्म को नही समझती ? देश की सेवा करने का अधिकार क्या इन पुरुषों का ही होता है? इन सारे प्रश्नो से दिल से एक ही जवाब आता है कि महिलाओं को समाज में सिर्फ उपयोग की वस्तु समझा गया है। जहां महिलाओं की उपयोगता है वाहां उनकी उपयोगीता लो और जहां नही है वहां उनके अत्मविश्वास को कम करने का प्रयास करों।



लेकिन जैसे-जैसे समय बदला महिलाओं मे जागरुकता आई अपने हक के लिये जब इन्होने आवाज उठाई तो समाज मे थोड़ा खुद को स्थापित कर पाई है। महिलाओ की जागरुकता के आधार पर ही भारत देश मे आजादी के बाद महिलाओ को भी वोट देने का अधिकार मिला ये अपने में एक एतिहासिक काम था। 1994 से से महिलाओं ने राजनीति में आरक्षण की बात करनी शुरु कर दी थी। आज भारत की एक्टिव पॉलिटिक्स मे महिलाओं की स्तिथि 193 देशो में 141 वा स्थान है। दुनिया भर के ससंदो मे 22.6 फिसदी महिलाओं की भागेदारी है लेकिन भारत मे ये आकड़ा 12 फिसदी है। महिलाओ को जब-जब मौका मिला है उन्होने राजनीति में पुरुषों से बढ़ कर काम किया है। कल्पना चावला, मेरी कोम, साइना नेहवाल, गीता फोगाट जैसी महिलाओं ने अपने-अपने क्षेत्र में अपनी अद्भुद प्रतिभा से पुरे देश का नाम रोशन किया लेकिन राजनीति का क्षेत्र इस मामले में अछुता ही रहा है। वो शायद इसलिये क्योकि राजनीतिक पार्टीयों ने महिलाओं को भागिदार बनाकर उनसे काम लिया लेकिन उन्हे राजनीति में हिस्सेदार नही बनाया।


समाज में कोई भी देश हो, अगर उसे आगे बढ़ाना है तो उसे अपने देश की महिलाओं को साथ-साथ लेकर चलना होगा क्योंकि यह सिर्फ उस देश की इकॉनमी में ही नहीं, राजनीति में भी हिस्सेदार हैं और भारतीय महिलाओं को जिस तरह से देखा जाता है, वह बहुत निंदनीय है


महिलाओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी का विश्लेषण एक पिरामिड मॉडल के रूप में किया जा सकता है. इसमें सबसे ऊपर लोकसभा में उनकी 1952 में मौजूदगी, 22 सीट, को रखा जा सकता है जो 2014 में 61 तक आ गई है. यह वृद्धि 36% है लेकिन लैंगिक भेदभाव अब भी भारी मात्रा में मौजूद है और लोकसभा में 10 में से नौ सांसद पुरुष हैं। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4% थी जो 2014 में क़रीब 11% है लेकिन यह अब भी वैश्विक औसत 20% से कम है।चुनावों में महिलाओं को टिकट न देने की नीति न सिर्फ़ राष्ट्रीय पार्टियों की है बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी इसी राह पर चल रही हैं। और इसकी वजह बताई जाती है उनमें 'जीतने की क्षमता' कम होना, जो चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण है।


हालांकि भारत के आम चुनावों में महिला उम्मीदवारों की सफलता का विश्लेषण करने वाले एक विशेषज्ञ के अनुसार यह पिछले तीन चुनावों में बेहतर रही है। 2014 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता 9% रही है जो पुरुषों की 6% के मुक़ाबले तीन फ़ीसदी ज़्यादा है।


यह आंकड़ा राजनीतिक दलों के जिताऊ उम्मीदवार के आधार पर ज़्यादा टिकट देने के तर्क को ख़ारिज कर देता है और साथ ही महिला उम्मीदवार न मिलने की बात को निराधार ठहराता है.


लोकसभा और फ़ैसले लेने वाली जगहों, जैसे कि मंत्रिमंडल, में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व सीधे-सीधे राजनीतिक ढांचे से उनको सुनियोजित ढंग से बाहर रखने और मूलभूत लैंगिक भेदभाव को रेखांकित करता है.


हालांकि महिलाएं राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन इन राजनीतिक दलों में भी उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम ही है।


जो महिलाएं पार्टी के अंदरूनी ढांचे में उपस्थित दर्ज करवाने में कामयाब रही हैं उन्हें भी नेतृत्व के दूसरे दर्जे पर धकेल दिया गया है और वह 'शीशे की छत' को तोड़ पाने में नाकामयाब रही हैं। वह राजनीतिक दलों में नीति और रणनीति के स्तर पर बमुश्किल ही कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और अक्सर उन्हें 'महिला मुद्दों' पर निगाह रखने का काम दे दिया जाता है। जिससे कि चुनावों में पार्टी को फ़ायदा मिल सके।नब्बे के दशक में भारत में महिलाओं की चुनावों में भागीदारी में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी देखी गई. इस साल हुए आम चुनावों में आज तक की सबसे ज़्यादा महिला मतदाताओं की भागीदारी देखी गई।चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की भागदारी 1962 के 46.6% से लगातार बढ़ी है और 2014 में यह 65.7% हो गई है, हालांकि 2004 के आम चुनावों में 1999 के मुक़ाबले थोड़ी गिरावट देखी गई थी।1962 के चुनावों में पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच अंतर 16.7% से घटकर 2014 में 1.5% हो गया है।90 के दशक में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को दिए गए 33% आरक्षण से देश की महिलाओं में पुरुषों की तरह ही सत्ता हासिल करने की भावना विकसित हुई है. इसने एक प्रेरणादायक का काम किया और जो शक्ति प्रदान की उससे महिला मतदाताओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी भी बढ़ी।


इतिहास गवाह है कि जब-जब महिलाओं को मौका मिला है, उन्होंने हर तरीके से अपनी काबिलियत सिद्ध की है और कई मायनों में पुरुषों से कहीं ज़्यादा बेहतर ढंग से काम किया है। चाहे हम बहुत पीछे जाकर रानी लक्ष्मीबाई को देखें या 19वीं शदी की “आयरन लेडी” इंदिरा गाँधी को, ऐसे अनेकों सुन्दर उदाहरण महिलाओं के मिल जाएंगे, जिन्होंने विश्व स्तर पर भारत देश को गौरवान्वित किया है। महिलाओं की प्रतिभा को आज राजनीति के क्षेत्र में भी आजमाने की जरुरत है। अब तक केवल महिला राजनीति मे भागिदार बन कर समाज मे योगदान दे रही थी अब उन्हे राजनीति में हिस्सेदार बन कर देश का नेतृत्व करने की आवश्यक्ता है।