समाज का नज़रिया और नारी सशक्तिकरण के मायने

 


 


नारी सशक्तिकरण का नारा बहुत दिनों से लगता आ रहा है लेकिन क्या हम सशक्त हो पाए हैं? क्या  समाज में नारी का स्थान  ऊंचा हुआ है? यह अपने आपसे एक प्रश्न करता है और मन को झकझोरता   है कि नहीं हम लोग अभी तक सशक्त नहीं हो पाए हैं!  21वीं सदी के इस भारत देश में बेटियों की राह अभी तक आसान नहीं हुई है यह सवाल आज भी समाज के चिंतकों को परेशान किए हुए हैं जहां हमारा संविधान विभिन्नता में एकता समानता और समता की बात को सुनिश्चित करता है परंतु वही वजह चाहे जो भी  हो जात -पात  गरीबी- अमीरी ऊंच-नीच महिला- पुरुष शारीरिक बनावट आदि  के नाम पर आज भी लोग शोषित पीड़ित एवं वंचित हैं।


महिलाओं का शोषण सदियों से चला आ रहा है समाज में महिलाओं को अभी भी नीची निगाह से देखी जाती है महिलाओं की स्थिति किसी संस्था , संगठन, राजनीति सभी जगहों पर पीछे करने की कोशिश की जाती है क्योंकि आजभी  हमारा समाज   पुरुषवादी सोच को लिए चलता है जहां पुरुषवादी सोच होती है वहां महिलाओं का ऊपर उठना बहुत मुश्किल होता है या फिर कुछ महिलाएं भी पुरुषवादी मानसिकता  रखती हैं जो समाज के लिए बाधक है ऐसी स्थिति में महिलाओं की स्थिति और भी गंभीर तथा दयनीय हो जाती हैं।




        मेरे हिसाब से महिलाओं के साथ अन्याय दो तरीके से होता है  एक जो अशिक्षित  हैं उनके साथ तो जन्म जन्मांतर से ही घोर अन्याय हो ही रहा है कम उम्र में शादी, घर की जिम्मेदारियां, छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन, घर का सारा काम महिलाओं पर छोड़ दिया जाता है जबकि गांव के पुरुष आज भी अपनी हुकूमत चलाते हैं वहीं गांव की महिलाएं घर से लेकर खेत तक का सारा काम वह संभालती हैं फिर भी उन महिलाओं को समाज में वह इज्जत नहीं मिलती जो पुरुषों को मिला करती है।    दूसरी तरफ जो महिलाएं पढ़ी लिखी हैं नौकरी करती हैं! उनके साथ भी भेदभाव रखा जाता है वह भी समाज से उपेक्षित रहतीं हैं।  यही वजह है कि हम महिलाएं  बढ़ने की वजह से हमारा समाज कमजोर हो जाता हैऔर पुरुष सत्तात्मक हावी हो जाती हैं। दूसरी तरफ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम है या या फिर लीडरशिप की कमी है संसद में महिलाओं की कमी होने की वजह से महिला कानून मजबूत नहीं हो पाती जिसका खामियाजा समाज में रह रही महिलाओं को भुगतना पड़ता है



         हर साल की भांति 8 मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है समारोह किए जाते हैं लेकिन कई जगहों पर यह देखने को मिलता है कि मंच पर मुख्य अतिथि के तौर पर महिला ही नहीं होती है पुरुष ही अपनी पुरुष सत्तात्मक आधिपत्य   को लेकर चलने का प्रयास करती हैं। पुरुष ही मंच का संचालन से लेकर पूरे कार्यक्रम की व्यवस्था को संभालने का प्रयास करते हैं जबकि वह समारोह महिला दिवस के नाम पर होता है इससे यह समझ में आता है कि आज भी पुरुष महिलाओं पर हावी हो कर अपना वर्चस्व स्थापित रखना चाहता है।

नारे और जुमले••• सवाल है कि अगर स्त्री पुरुष बराबर हैं तो औरतों को बराबरी का दर्जा क्यों नहीं दिया गया? स्त्री पुरुष समानता को अभी तो सिर्फ एक नारे की तरह बरता जाता है। कविता कहानियों में इस तरह की बातें खूब लिखीं जातीं हैं लेकिन समाज में नजर दौड़ा कर देखें तो बराबरी की बात महज एक जुमला नजर आता हैं पहले घरों में लड़कियां जब कुछ बोलती थीं तो उन्हें दादी नानी हिदायत देती थी कि तू लड़की है ज्यादा मत बोल "चुप रह"  'चुप रह'  'चुप रह' की सलाह ने ऐसा भयानक रूप लिया  कि औरतों  ने घुट घुट कर जीने को ही अपनी नियति मान लिया अपने मन की बात किसी से ना कर पाने के कारण औरतें  आज डिप्रेशन का शिकार हो रहीं हैं।
आप किसी मनोचिकित्सक से पूछ लीजिए शिक्षित संभ्रांत महिलाएं उनके पास बड़ी संख्या में अपनी समस्या लेकर आती हैं। लेकिन इन से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या उन महिलाओं की है जो यह समझ नहीं पातीं कि उनकी समस्या क्या है?
पूरा जीवन में अवसाद में ही गुजार देतीं हैं। गांवों में तो अवसाद की शिकार महिलाओं के बारे में मान लिया जाता है  कि उन पर भूत प्रेत सवार है; जिससे मुक्ति के नाम पर उन्हें यंत्रणा दी जाती है।
       साइमन द बोउवार--- ने लिखा है औरत जन्म नहीं लेती बनाई जाती है अवसाद घुटन डर असुरक्षा  जैसे औजारों से औरत बनाई जा रहे हैं। लड़कियों औरतों की समस्या की तह में जाने की कोशिश करें तो पाते हैं कि  पिर्तृसत्तात्मक सोच की ग्रंथि से औरतें इस तरह ग्रसित हैं कि वह अपने लिए सोचने बोलने का फैसला नहीं ले पातीं जन्म से ही घुट्टी  पिलाई गई गलत सही किसी ने डर के साथ साथ उनके भीतर कई स्तरों पर द्वंद भर दिया है। अपने लिए कोई फैसला करने से पहले 10 बार सोचतीं हैं उन्हें लगता है कि ऐसा करने पर वह स्वार्थी कहलाएंगीं   क्योंकि हमारा समाज इसी तरह सोचता है अगर एक औरत अपने लिए कोई फैसला करती है तो वह स्वार्थी समझी जाती है बदचलन कही जाती है। समाज की प्रतिक्रिया से जाहिर हुआ कि पढ़ा लिखा समाज आज भी स्त्री को लेकर कितनी बुरी तरह परंपरागत सोच से ग्रस्त है औरत अगर अपने साथ हुए यौन संबंधी अत्याचार की बात कर रही है तो वह संदिग्ध है।
जब कुछ महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के मामलों का उल्लेख किया तो उल्टे उन्हीं से सवाल किए गए "तब क्यों नहीं बोला" 'अब क्यों बोल रही हो' तमाम आरोप एक सिरे से खारिज करने की कोशिश हुई इस अभियान में शामिल औरतों के चरित्र पर सवाल उठाए गए ठीक उसी तरह जैसे बलात्कार के मामले में सारा दोष लड़कियों के ही मत्थे मढ़ दिया जाता है कि 'इतनी रात को घर से क्यों निकली'? ऐसे कपड़े क्यों पहने? लड़कों के साथ क्यों गई? समाज के इस आक्रमक नजरिए को देखकर कई महिलाओं ने अपने होंठ सिल लिए वह जानती हैं कि न्याय मिलने की बजाय उन्हें उल्टी और सजा मिलेगी पिछले दिनों पुलवामा के शहीदों के बारे में कुछ न्यूज़ एंकर ने अपनी बात कही या सोशल मीडिया पर कुछ बौद्धिक महिलाओं ने देश में पैदा माहौल पर अपनी आपत्ति जताई तो एक तबका उनके साथ असभ्य व्यवहार पर उतारू हो गया ऐसा करने वालों में कुछ राजनीतिक दलाल थे तो कुछ पढ़े लिखे लोग भी थे सब उनके चरित्र पर सवाल उठाए। उन्हें सामूहिक बलात्कार की धमकी दी गई इनबॉक्स में उन्हें पुरुष जननांग का चित्र भेजा गया कुछ महिलाओं की फोटो के साथ छेड़छाड़ की गई उन्हें बदनाम करने के लिए उनके अश्लील वीडियो वायरल किए गए साइबर कानून और ऐसे मामलों में सजा की जानकारी सबको है।



लेकिन कितनी लड़कियां इसका इस्तेमाल कर पाती हैं? कई पुरुषों ने अपनी पत्नी या बेटी को सोशल मीडिया से दूर रहने की हिदायत दी है उनकी हिदायत के बावजूद कुछ महिलाएं अपनी पहचान बदलकर सोशल मीडिया पर बनी हुई है या फिर उन्होंने अपनी तस्वीर अपने प्रोफाइल पर नहीं लगाई नर्क जैसा जीवन है इन हरकतों पर पूरे देश को शर्मसार होने की जरूरत है देश के प्रतिष्ठित महिलाओं के साथ जब समाज इस कदर पेश आता है तो गरीब अशिक्षित औरतों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है।



घरेलू हिंसा से कितनी औरतों की जान जा रहीं हैं!  ऐसे में नर्क से निकलने के लिए तलाक लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा नहीं पाती पढ़ी लिखी नौकरी पेशा महिलाएं भी अपने अधिकारियों की बदतमीजी और उत्पीड़न पर चुप रहने को विवश है क्योंकि उन्हें न्याय मिलने की आशा नहीं है अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के लिए चुप रहने में ही भलाई समझती है।         


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस तभी सार्थक होगा जब  देश की आधी आबादी को हर स्तर पर  बराबरी का हक मिलेगा और स्त्री हर तरह से डर और असुरक्षा से मुक्त हो सकेगी।  कमल कुमार का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास 'मैं घूमर नाचूँ' राजस्थान की एक बाल विधवा कृष्णा के चरित्र को फोकस करता हुआ स्त्री की आजादी को स्पष्टता से रेखांकित करता है और पुरुष प्रधान सत्ता को चुनौती देता है। 

नारीवादी लेखन आज के समय की जरूरत है। आधुनिकता और उदार सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक स्थिति या उत्थान में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। आज भी वे समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही हैं। पुरुष सत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धँसी हुई हैं। इसे तोडना, बदलना या सँवारना एक लम्बी लड़ाई है। साहित्य और शिक्षा हो या सामाजिक संगठन, हर क्षेत्र में स्त्रियाँ अपनी-अपनी तरह से अपनी लड़ाई लड़ रही हैं और स्त्रियों की पारंपरिक दासता में बदलाव लाने की कोशिश में रत हैं। 

कथा-साहित्य में भी स्त्री चेतना ने अपनी उपस्थिति पूरी गहराई और शिद्दत से दर्ज करवाई है पर हिन्दी साहित्य में तथाकथित स्त्री विमर्श और विचार इतने बौद्धिक स्तर पर है कि आम औरतों तक या उन औरतों तक, जिन्हें सचमुच जागरूक बनाने की जरूरत है, यह पहुँच ही नहीं पाता। यह काम साहित्य के स्त्री विमर्शकारों से कहीं अधिक महिला संगठन और जमीनी तौर पर उनसे जुड़ी कार्यकर्ता कर रही हैं।